Sunday 11 October 2015

जय प्रकाश नारायण 


राष्ट्र भक्त और निष्काम  कर्मयोगी, जय प्रकाश नारायण को   देश उनके जन्म दिवस पर नमन करता है। संपूर्ण क्रांति का आह्वाहन कर समस्त देशवासियों को उन्होंने देश सेवा करने की जिम्मेदारी सौंपी।  प्रजातंत्र   के मंदिर में उन्होंने व्यवस्था परिवर्तन की जिम्मेदारी समस्त नागरिको को सौंप कर यह  सन्देश  दिया की प्रजा जनतंत्र की नीव है और उसे हमेशा  जागरूक रहकर प्रजातंत्र के आदर्शो को जीवित रखने का प्रयास करना चाहिये । 

लोकनायक की जन्म और कर्म भूमि बिहार आज ऐसी  दहलीज पर खड़ा   होकर व्यवस्था परिवर्तन की मांग कर रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि  उनके ही अनुयायियों  ने ही आज बिहार की धरती को खोखला कर प्रजातंत्र के आदर्शो को रौंदने का काम किया  है।

 बिहार में पुनः लोकनायक की संपूर्ण क्रांति की आवश्यकता है ताकि इस राज्य  को विकास की संजीवनी प्राप्त  हो और सामाजिक समरसता प्रदान हो न कि जाति  और मजहब के आधार पर कटुता फैले । बिहार के सच्चे सपूत को  हमारी सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी जब हम अपने अन्दर जाग्रति लायें   और अपने मतदान व्यवहार  की दिशा  बदलें  और व्यवस्था परिवर्तन कर बिहार को उसकी अतीत के गौरव    की ओर ले जायें । 

मुझे दिनकर जी की पंक्तियाँ याद आ रही हैं जो हमारे लिये प्रेरणादायक  हैं :

सदियों की ठंढी, बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता? हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
जनता? हां, लंबी-बडी जीभ की वही कसम,
"
जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"
सो ठीक, मगर, आखिर इस पर जनमत क्या है?"
'
है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"
मानो, जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में
अथवा कोई दुधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता; गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तैयार करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
      

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