Sunday 4 September 2016

डॉ राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के प्रणेता और सुरक्षा कवच थे। आज हम सभी का दायित्व है की हम अपनी संस्कृति को अब बौद्धिक  औपनिवेशिक बंधन से मुक्त करें। शिक्षक दिवस  की बहुत शुभकानाये। 

प्रो राकेश सिन्हा द्वारा हिंदी विवेक में प्रकाशित लेख 'भारतीय बौद्धिकता पर मैकाले -मार्क्सवादी  ग्रहण ' अद्भुत और विचारणीय है। इस लेख में सूक्ष्म और वृहत विश्लेषण के द्वारा तथ्यों के आधार पर भारतीय संस्कृति को दरकिनार करने की जो चेष्टा  मैकाले समर्थक कुछ  कांग्रेस और मार्क्सवादी  बुद्धिजीवियों  द्वारा  की गई है इसमे इन सभी को उजागर करने का प्रयास किया गया है। ''औपनिवेशिक शासन का तो अंत हुआ परन्तु औपनिवेशिक संस्कृति सोच और समझ यथावत बनी रही।

 स्वयं जवाहरलाल  नेहरु ने जाने -अनजाने इस सच को स्वीकार किया था कि उन्होंने भारत को पश्चिम के प्रिज्म से देखा है। " डॉ   राजेंद्र प्रसाद , एन वी  गाडगिल ,पुरुषोत्तमदास टंडन, शंकरराव देव ,कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी इत्यादि ऐसे कितने ही भारतीय संस्कृति के चिंतको को हासिये पर रखा गया। ऐसे अनेक तथ्यों  के द्वारा इस लेख में बौद्धिक आतंकवाद का परिचय मिलता है। लेकिन हमारी संस्कृति आशावादी है और इसलिए इस लेख की  अंतिम पंक्ति भी सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी रचित  एक पंक्ति से ख़त्म होती  है जो उन्होंने भगवान श्री राम के सन्दर्भ में  लिखा  था और वह पंक्ति भारत के राष्ट्रवादी चिंतन धारा के लिए उपयुक्त  है  .. होगी जय , होगी जय , हे पुरुषोत्तम नवीन।

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