मानो , जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं ,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में ;
अथवा कोई दुधमुंही जिसे बहलाने के
जंतर-मंतर सीमित हों चार खिलौनों में।
आरती लिए तू किसे ढूंढता है मूरख ,
मंदिरों,राजप्रासादों में ,तहखानों में ?
देवता कहीं सडकों पर गिट्टी तोड़ रहें ,
देवता मिलेंगे खेतों में ,खलियानों में।
सदियों की ठंढी -बुझी राख सुगबुगा उठी ,
मिट्टी सोनें का ताज पहन इठलाती है ;
दो राह समय के रथ का धर्धर -नाद सुनों ,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। .... ..... रामधारी सिंह दिनकर
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में ;
अथवा कोई दुधमुंही जिसे बहलाने के
जंतर-मंतर सीमित हों चार खिलौनों में।
आरती लिए तू किसे ढूंढता है मूरख ,
मंदिरों,राजप्रासादों में ,तहखानों में ?
देवता कहीं सडकों पर गिट्टी तोड़ रहें ,
देवता मिलेंगे खेतों में ,खलियानों में।
सदियों की ठंढी -बुझी राख सुगबुगा उठी ,
मिट्टी सोनें का ताज पहन इठलाती है ;
दो राह समय के रथ का धर्धर -नाद सुनों ,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। .... ..... रामधारी सिंह दिनकर
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