शुभ संकल्पों के साथ राष्ट्रवाद की गूँज
स्वतंत्रता प्राप्ति के समय राष्ट्रवाद की गूंज पराधीनता से स्वतंत्रता की ओर ले जाने का प्रयास था, परन्तु वर्तमान परिदृश्य में, स्वतंत्र भारत में राष्ट्रवाद की गूंज तथा इसका उद्देश्य भारत में रहने वाले कुछ वैसे भारतीयों को जगाना है जो राष्ट्र प्रेम और राष्ट्रीय दायित्व से विमुख होकर सुसुप्त अवस्था में चले गये हैं। वैसे ही लोगों के बीच राष्ट्रवाद की नई ऊर्जा का संचार करना अतिआवश्यक हो गया है। राष्ट्र की अस्मिता की रक्षा करना तो बिना किसी भेद भाव के,सभी भारतीयों का परम कर्त्तव्य होना चाहिए। इन्हीं शुभ संकल्पों के साथ राष्ट्रवाद को नई ऊर्जा देने का प्रयास किया जाना एक सकारात्मक पहल है।
विगत कुछ महीनो से राष्ट्र में शुष्क विवादों की बेबुनियाद सुनामी आई हुई है। सामाजिक रूप से जागरूक एवं तथाकथित पढ़े लिखे लोगों द्वारा जिस तरह की बातें कही जा रही है , उन शब्दों की चर्चा करना भी राष्ट्र की तौहीन के समान ही होगी और मर्यादा का उल्लंघन होगा। आखिर ऐसी क्या चूक रह गई हमारे संकल्पों और संस्कारों में जो राष्ट्र के अंदर ही राष्ट्रद्रोह का बीजारोपण शुरू हो गया। यह काफी चिंताजनक और विचारनीय है । प्रश्नों के घेरे में है हमारा इस तरह का कार्यकलाप , जिसका मुल्यांकन करना अतिआवश्यक हो गया है।
हमारी राष्ट्रीयता का आधार 'भारतमाता ' की परिकल्पना से जुड़ा हुआ है,केवल 'भारत' से नहीं। 'माता' शब्द हट जाए तो 'भारत' केवल जमीन का टुकड़ा मात्र रह जाएगा। इस भूमि का और हमारे बीच जो ममत्व का रिश्ता है वह तब आता है, जब मातृत्व वाला सम्बन्ध जुड़ता है। अतः राष्ट्र का वास्तविक स्वरुप समझने के लिये उसके मूल तत्व की ठीक से पहचान करने की जरुरत है । जिसके आविर्भाव से राष्ट्र का उदय होता है और जिसके क्षीण पड़ने से राष्ट्र विनाश की ओर अग्रसर हो जाता है। यह मूल तत्व है- 'अध्यात्म आधारित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद', जो हमारी राष्ट्र की धरोहर है। इसलिये अपनी संस्कृति को बचाना सभी भारतीयों का मूलभूत कर्त्तव्य है । अगर संस्कृति जीवित है तो राष्ट्र सर्वथा सृजन की दिशा मे आगे बढ़ेगा परन्तु अगर हमारे अंदर संस्कृति और संस्करों का क्षय होगा तो विध्वंसकारी शक्तियां हमारे राष्ट्र के अंदर प्रस्फूटित होती रहेंगी। हमारी सत्यनिष्ठा , प्रेम एवं ऋषियों व मुनियों के तप और त्याग से सिंचित इस राष्ट्र के कण कण में राष्ट्र प्रेम की अविरल धारा बहती रहे ,इन्ही संकल्पों से हम राष्ट्र को उर्ध्वरोहण की और ले जा सकते हैं ।
अतः हमारे राष्ट्र की प्रकृति है -' अखंड भारत', खंडित विकृति है। एकता का दर्शन कर उसके विविध रूपों के बीच परस्पर पूरकता को पहचान कर उसका संस्कार करना सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का सूचक है। भारतीय संस्कृति की मुख्य विशेषता है- सम्पूर्ण जीवन का ,एकात्मवादी दृष्टिकोण से दर्शन करना ,टुकड़े टुकड़े में विचार करना तो पश्चिम राष्ट्रवाद की परिकल्पना है।
राष्ट्र के लिए काम करना हमारा धर्म है और प्रत्येक व्यक्ति 'मैं और मेरा' विचार त्यागकर 'हम और हमारा' विचार करके आगे बढे और राष्ट्र की ही आराधना करे। देश संकल्प ,धर्म और आदर्श के समुच्चय से राष्ट्र बनता है , इन्ही शुभ संकल्पों को लेकर हम आगे बढें और व्यक्तिगत,दलगत कोई विचार लेकर बढ़ने से राष्ट्र की समुचित प्रगति नहीं हो सकती। राजनीति राष्ट्र के लिये है, राष्ट्र राजनीति के लिए नहीं । यदि राष्ट्र का विचार छोड़ दिया जाय ,यानि राष्ट्र की अस्मिता ,सभ्यता संस्कृति को छोड़ दिया जाय तो राजनीति का क्या उपयोग ? राष्ट्र का स्मरण कर अगर कार्य होगा तो सबका मूल्य बढ़ेगा राष्ट्र को छोड़ा तो सब शून्य जैसा ही है। हम इन्हीं उच्च आदर्शो को ध्यान में रख राष्ट्रवाद को पुनः नई ऊर्जा दें । इन संस्कारों को जागृत करना ही राष्ट्र का संगठन करना है।